जानिए कौन है विद्याधरी बाई जिसने स्वतंत्रता आन्दोलन के समय देश में पहली बार कोठे पर गाया था क्रान्तिकारी मुजरा



"चुन-चुन के फूल ले लो, अरमान रह न जाए, ये हिंद का बगीचा गुलजार रह न जाए, कर दो जाबन बंदी, जेलों में चाहे भर दो, माता में कोई होता कुर्बान रह न जाए''......यह किसी क्रांतिकारी, कवि या शायर की पंक्तियां नहीं बल्कि भारत का पहला देशभक्ति मुजरा है, जिसे चंदौली के जसुरी गांव की सुर साम्राज्ञी विद्याधरी बाई ने काशी के एक कोठे पर गाया था।
उन दिनों कोठे पर एकमात्र उनका ही मुजरा ऐसा होता था, जिसके शुरू होने और खत्म होने पर वंदेमातरम की गूंज सुनाई पड़ती थी। मुजरे से होने वाली पूरी कमाई वे चुपके से क्रांतिकारियों को दे देती थीं।
चंदौली मुख्यालय से सटे और वीरान जसुरी गांव कभी संगीत के लिए जाना जाता था। सुर साम्राज्ञी विद्याधरी बाई भी इसी गांव से थीं। जसुरी के बुझावन राय और भुट्टी राय के घर 1881 में जन्मी विद्याधरी बाई की आवाज में खनक थी। हिंदी के साथ ही वे उर्दू, गुजराती, मैथिल और बांग्ला में भी गाती थीं। उनके गीत गोविंद का गायन सुनकर ऐसा लगता था कि गले में वाग्देवी विराजी हैं।
रेडियो पर भी बिखेरा था सुरों का जलवा
काशी नरेश के दरबार की प्रमुख गायिका होने के साथ ही देश की सभी प्रमुख रियासतों और ऑल इंडिया रेडियो पर भी उन्होंने अपने सुरों का जलवा बिखेरा था। इनके कोठे पर खड़ी महफिल लगा करती थी। यानी भीड़ की वजह से लोग खड़े होकर उनके गीत सुनते थे। विद्याधरी ने प्रसिद्ध सारंगी वादक सुमेरू राम मिश्र, उस्ताद नासिर खां से संगीत की शिक्षा थी थी। विद्याधरी की चैती, टप्पा और ख्याल की वंदिशें ऐसी होती थीं कि लोग घंटाें सुध-बुध खोकर सुनते रहते थे।
प्रसिद्ध साहित्यकार अमृत लाल नागर ने अपनी पुस्तक ''ये कोठेवालियां'' में लिखा कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी ने बनारस के तवायफों के बीच एक सभा की थी। इसमें हुस्ना बाई ने यादगार और शानदार भाषण दिया था। इस कार्यक्रम का पूरा खर्च विद्याधरी बाई ने उठाया था। इसी सभा के बाद तवायफ संघ का गठन हुआ।
गांधी जी ने उस समय तवायफों से गुजारिश की थी कि वे देश की रियासतों में या जहां भी संगीत पेश करें, वह देशभक्ति से जुड़ा होना चाहिए। इससे देशभक्ति का भाव जगेगा। विद्याधरी बाई ने गांधी जी की बात मन में बैठा लिया था। उन्होंने पहला देशभक्ति का मुजरा खुद ही लिखा और काशी के एक कोठे पर गाया भी था। इसके बाद मुजरा देश के विभिन्न रियासतों और दरबारों में सुनाया गया। विडंबना है कि स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी दूसरी किताबों में इसका जिक्र तक नहीं मिलता है।
विद्याधरी बाई का जसुरी गांव में एकमात्र तीन मंजिला भवन था। इसमें बेल्जियम के झूमर लटकते थे। जीवन के आखिरी समय में वे अपने गांव आईं और भतीजे के साथ रहने लगीं। वह धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। प्रकृति प्रेमी भी थीं। उन्होंने घर के पीछे आम, लीची सहित कई फलों का एक बड़ा बगीचा बनवाया था।
बगीचे की सिंचाई के लिए बना कुआं अब भी है। बगीचे में कमरे बने थे। इन कमरों में संगीत के प्रेमी तो रहते ही थे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान क्रांतिकारियों को बगीचे में शरण भी देती थीं और अंग्रेजों की जांच में उन्हें संगीत से जुड़ा व्यक्ति बताकर बचा लेती थीं।
विद्याधरी बाई को गांव के अलावा जिले में कोई नहीं जानता है। गांव की नई पीढ़ी उनसे अनभिज्ञ है। उनका पुराना मकान जर्जर हो चुका है। पहचान के तौर पर घर के कोने में पड़ी उनकी तस्वीर भी दीमक खा रहे हैं। देखभाल के अभाव में तस्वीर बदरंग हो गई है। उनके भाई भगवती प्रसाद का निधन हो जाने के बाद उनकी एकमात्र पुत्री वीणा देवी और उनके पति सर्वनाथ राय घर पर रहते हैं।
सर्वनाथ राय ने बताया कि विद्याधरी जी ने जो भी कमाया, उसका ज्यादातर हिस्सा देश की आजादी के लिए खर्च कर दिया। वह क्रांतिकारियों को पैसे देती थीं। निधन से एक दिन पहले उनको अनुमान हो गया और वाराणसी के मिश्र पोखरा स्थित मुक्ति भवन चली गईं, जहां 10 मई 1971 को उन्होंने अंतिम सांस ली।

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