यूपी में चुनावी जंग इस बात की भी होगी कि किसका कद कितना कद्दावर बनकर उभरेगा जनता की कसौटी पर होंगे सियासी योद्धा




उत्तर प्रदेश यानी पांचवां सबसे बड़ी आबादी वाला 'प्रदेश'

देश की आबादी में करीब 17 फीसदी हिस्से वाला प्रदेश

संसदीय चुनाव के मौके पर ये दो तथ्यात्मक परिचय उत्तर प्रदेश की हैसियत बताने के लिए पर्याप्त हैं। यूपी देश का दूसरा इंजन है। अपने आकार और संख्या से यह प्रदेश, देश के किंगमेकर की भूमिका निभाता है। ये बड़ापन खजूरनुमा नहीं है, प्रदेश की छांव दिल्ली दरबार तक कवर करती है। इस चुनाव में भी काफी कुछ तय करने का माद्दा इसी प्रदेश में है। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा हो चुकी है। जंग इस बात की भी होगी कि किसका कद कितना कद्दावर बनकर उभरेगा। जनता की कसौटी पर होंगे सभी सियासी खिलाड़ी। इतना ही नहीं, लोकतंत्र की कसौटी पर मतदाता भी होंगे, क्योंकि उन्हीं पर सारा दारोमदार है।
बनारस से चुनाव मैदान में तीसरी बार उतरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ब्रांड वैल्यू का लाभ हर बार की तरह इस बार भी पूरे प्रदेश को मिलने की भाजपा उम्मीद लगाए है, तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तेजतर्रार कार्यशैली और यूपी की इमेज ब्रांडिंग की छाप भी प्रचार में सबसे ऊपर रहेगी। सरकार व संगठन काफी हद तक इन दो सिक्कों के सहारे है। चुनावी नैया के सबसे बड़े खेवैया यही दोनों हैं। यही वजह है कि दोनों ने फरवरी से ही चुनाव प्रचार जैसे कार्यक्रम शुरू कर दिए। योगी ने तो चुनाव की घोषणा के पहले तक लोकार्पण-शिलान्यास कर आक्रामक प्रचार रणनीति का अहसास करा दिया।
भाजपा की रणनीति ऐसी है मानो लड़ाई बड़ी लकीर खींचने की हो। प्रचार का नैरेटिव बड़ी जीत है, इसी में शह और मात छिपा है। एनडीए गठबंधन ने दो तिहाई प्रत्याशी घोषित कर विपक्षी गठजोड़ से बढ़त साबित कर दी है, तो विपक्ष अभी सहयोगी जुटाने की मशक्कत कर रहा है। विपक्षी गठबंधन 19 के मुकाबले और 19 है। पिछले चुनाव में सपा की गलबहियां रही बसपा से और इस बार तो उसी से मुकाबिल है। पश्चिम का परंपरागत साथी रालोद भी हाथ झटक कर स्वभाव के मुताबिक सत्ता के साथ आ खड़ा हुआ है। हां, नासाज हालत की कांग्रेस जरूर सपा को सहारा देने आ गई है, तुनकते-बिदकते-झगड़ते ही सही। हवा का रुख देख भाजपा की तरफ विपक्ष के नेताओं की कदमताल तेज होती जा रही है। हवा के थपेड़ों से छोटे-छोटे क्षत्रप दल भी इधर-उधर सेटल होने लगे हैं, इधर कुछ ज्यादा ही। इसे मानसिक जीत के तौर पर देखा-बताया जा रहा है। हालांकि पिछले चुनाव में हारी 14 सीटों के नतीजे ब्रांड वैल्यू की असली परख होंगे।
प्रदेश को मोटे-मोटे तीन हिस्सों में बांटकर देखा जाए तो पूरब, पश्चिम और मध्य के कुछ मुद्दे राज्यव्यापी हैं, तो कुछ क्षेत्रव्यापी, लेकिन असर सभी का है। हाल तक चुनावों में जाति-धर्म का फैक्टर सबसे प्रधान रहता रहा है, लेकिन पिछले चुनावों से एक और बड़ा फैक्टर उभरा है-लाभार्थीजन। सरकार की जन कल्याण की योजनाओं का जादू जैसा यहां के पिछले विधानसभा चुनाव में चला, इस बार भी वैसे करिश्मे की सत्तापक्ष उम्मीद लगाए है। सबसे बड़ा असर इसी का माना जा रहा है, जात-धरम इस लाभ के पीछे लाइन में है। मुद्दों की कड़ाही में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) नया छौंक है। चुनावी खिचड़ी इससे चटपटी हो ही गई है। अयोध्या के राम मंदिर के भक्ति-भावपूर्ण माहौल के बीच सीएए को डंके की चोट पर लागू करने का एलान प्रदेश में चुनाव को नई बिसात पर ले जा रहा है।
हमेशा चुनावी मोड में रहने वाली भाजपा का कॉरपोरेट अप्रोच उसकी क्वालिटी डिलीवरी सुनिश्चित करता है। एक्सप्रेसवे दौड़ाने वाली पार्टी की चुनावी चाल भी सुपरफास्ट है। मुकाबिल विपक्ष चुनावी तैयारियों में तो मात खा ही गया है। गठबंधन के दो प्रमुख दल सपा और कांग्रेस अभी भी स्वाभाविक दोस्त जैसे नहीं दिख रहे हैं। एनडीए गठजोड़ कहीं कसर नहीं छोड़ रहा। हर वोटबैंक के लिए पैकेज है-जाति चाहिए तो जाति, धर्म चाहिए तो धर्म, विकास चाहिए तो विकास और योजनाओं का लाभ चाहिए तो वो भी। आधा फीसदी वोटबैंक है तो वहां भी सौ फीसदी प्रयास। यादव महाकुंभ के जरिए प्रदेश के सबसे बड़े यादव वोटबैंक में सेंधमारी की कोशिश से इसे समझा जा सकता है।
इस चुनाव के अखाड़े में प्रौढ़ हो चुके दो युवा नेता भी जोर दिखाएंगे, तो पिछले चुनाव में लड़कियों को लड़ाकू बनाने वाली प्रियंका को भी पुकारा जा रहा है जो अभी तक दूर-दूर हैं। रायबरेली, अमेठी की सीटें हमेशा से यूपी की चुनावी दाल का तड़का रही हैं, इस बार भी हैं और पहले से कहीं ज्यादा। बस जीत का जायका किसे नसीब होता है, ये देखना है। अमेठी में राहुल अपराजित नहीं रहे, पिछली बार की स्मृति ताजा ही है और सोनिया की रायबरेली सीट की सेहत भी नासाज है, तीमारदार खिसक चुके हैं तो नई चुनौतियां सामने हैं। रायबरेली से विदा लेते वक्त जनता के नाम अपने आत्मीय संबोधन से उन्होंने बात बिगड़ने न देने की चेष्टा तो की है, लेकिन यहां कांग्रेस की लड़ाई में सहारा बनते सपा के बड़े नेता मनोज पांडेय के भाजपा के पाले में आ जाने से अब दुश्वारी और बढ़ गई है। सोनिया के बाद कौन-इसका जवाब, बेशक बेहद रोचक और रोमांचक होगा। 
भले ही विपक्षी गठबंधन इंडिया चुनावी तैयारियों में पिछड़ता दिख रहा हो, लेकिन लगता है सत्तापक्ष के आगे चुनौतियां पेश करने में पीछे नहीं रहेगा। पुराने आजमाए हथियार-पुरानी पेंशन, सरकारी भर्ती परीक्षा के तौर तरीके, किसानों की आय व फसलों की वाजिब कीमत जैसे उसके मुद्दे भाजपा गठबंधन को घेरते दिखेंगे। निजी निवेश के आकड़ों पर खड़े सवाल परेशानी का सबब बन सकते हैं। जातियों को साधने की भाजपा की रणनीति को कांग्रेस की सामाजिक न्याय की मुहिम और सपा की पीडीए की टेर से चुनौती मिल सकती है। नाराज सरकारी कर्मचारियों पर भी विपक्ष डोरे डालता दिख रहा है। एक खास बात, तीन साल बाद के विधानसभा चुनाव की प्रस्तावना भी लिखेगा ये चुनाव।
अखिलेश के आगे दरकती पार्टी को संभालने की चुनौती है। लगातार दो हार के बाद इस संसदीय चुनाव में कार्यकर्ताओं के मनोबल को बनाए रखने लायक नतीजे न आए तो अगले विधानसभा चुनाव में चुनौती और बड़ी हो जाएगी। कांग्रेस के पास तो खैर खोने के लिए कुछ खास है भी नहीं। बसपा की अपनी अलग और अनूठी चाल है, वो वैसी ही रहने की उम्मीद है। उसका अपने काडर वोटर पर से भरोसा अभी उठा नहीं है।
बसपा से रणनीतिक   फायदे की उम्मीद
प्रदेश की 80 सीटों में से पूर्व, पश्चिम, मध्य तीनों में लगभग बराबर-बराबर सीटें हैं। पश्चिम में चौधरी जयंत की रालोद के साथ आने से भाजपा की लड़ाई आसान हुई है। लेकिन, रालोद के प्रभाव क्षेत्र से दूर पश्चिम यूपी का पूर्वी क्षेत्र मुस्लिम आबादी की बहुलता के कारण हर बार की तरह इस बार भी मुश्किलें पेश करेगा। हालांकि, पसमांदा मुस्लिमों के बीच पैठ बनाने की भाजपा ने बहुतेरी कोशिशें की हैं। पूर्व में सुभासपा और निषाद पार्टी अति पिछड़ों के वोट खींचने में भाजपा की मदद कर सकते हैं। पिछड़ी जातियों की जिधर गोलबंदी हो गई, वो मैदान मार ले जाएगा। मध्य और बुंदेलखंड में सपा-बसपा का असर कम होने का भाजपा को फायदा मिल सकता है। बसपा भी रणनीतिक रूप से उतारे जाने वाले अपने प्रत्याशियों से परोक्ष रूप से भाजपा की मदद करेगी। 

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