वो प्रेम थे नफरत से जहां देख रहा है" ये प्रेम तो बस दिल में बसने के लिए था- डा पीसी विश्वकर्मा
जौनपुर। साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्था कोशिश की मासिक संगोष्ठी रासमंडल स्थित स्व रामेश्वर प्रसाद सिंह हाल में स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव के अवसर पर संपन्न हुई।
वाणी वंदना के पश्चात गिरीश कुमार गिरीश का मुक्तक--- रौशनी हूँ मैं सिर्फ तम खा कर, ज़िन्दगी जी रहा हूँ गम खाकर,दे रहा है दिलासा दोस्त मेरा/मुझसे,झूठी मेरी कसम खाकर---विश्वास के संकट की ओर संकेत कर गया।अशोक मिश्र का गीत---साधो कौन खरीदे दर्पन/यह अंधों का गाँव है--छीजते मानवीय मूल्यों पर चोट कर गया। वहीं रामजीत मिश्र की रचना---जांचने के लिए आदमी का जहर--व्याप्त संवेदनहीनता पर प्रहार कर गई।
व्यंग्य के सिद्धहस्त कवि सभाजीत द्विवेदी प्रखर की पंक्तियाँ--आजादी की बलिवेदी पर अपना शीश उतारा था--राष्ट्रीय भावना जगा गई। प्रेम जौनपुरी का शेर--वो प्रेम थे नफरत से जहां देख रहा है/ये प्रेम तो बस दिल में बसाने के लिए था। जनार्दन अष्ठाना का गीत--भूल पाऊं मैं कैसे भला,याद तेरी सँवारा करूं-- विरहिन की वेदना को उकेर गया। अंसार जौनपुरी की पंक्ति---पैगामे मोहब्बत में भी खंजर निकल आए--खूब पसंद किया गया।
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