तीन मार्च को मल्हनी विधानसभा के कोलाहलगंज में सपा के लिए वोट मांगेंगे मुलायम सिंह यादव
जौनपुर। समाजवादी पार्टी के संरक्षक एवं पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव 03 मार्च को 12.30 बजे दिन में मल्हनी विधान सभा क्षेत्र के करंजाकला ब्लाक स्थित कोलाहल गंज में समाजवादी पार्टी के लिए वोट मांगने आ रहे है। इस आशय की जानकारी देते हुए जिलाध्यक्ष लालबहादुर यादव ने बताया की जन सभा की तैयारी चल रही है। उन्होंने जन सभा में बड़ी तादाद में जनता को पहुंचने की सम्भावना जतायी है।
जलवा जिसका कायम है उसका नाम मुलायम
ReplyDeleteइसको कहते हैं डर कि 80 साल का बुजुर्ग भी मैदान में आ गया है।
ReplyDeleteधनंजय सिंह जिंदाबाद-जिंदाबाद
सवाल यह नहीं है कि नेता जी आ रहे हैं सवाल यह है कि नेता जी ने जिनको जीवन भर अवसर दिया उन्होंने इतना भी नहीं किया कि बगैर नेताजी के जनता का विश्वास हासिल कर सके।
ReplyDeleteजौनपुर की राजनीति की पुराने लोग अब लगभग बहुत कम रह गए हैं लेकिन जो लोग आजकल हैं वह आपस में एक दूसरे के साथ खड़े नजर नहीं आते सब अपने-अपने परिवार के लिए बेचैन है किसी का भाई किसी का बेटा किसी का भतीजा। ऐसे में जौनपुर की राजनीति का यह क्षेत्र पूर्णतया जनता के विश्वास पर आधारित है जब जरूरत पड़ती है तब राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं राजनीति के पहलवान माननीय नेता जी जौनपुर में अपना चरखा गांव जरूर लगाते हैं।
अब नया सवाल यह है कि जौनपुर की राजनीति में खरीद-फरोख्त का और अविश्वास का आरंभ जिन लोगों ने किया था आज उनकी पीढ़ियां जो है अराजनीतिक हैं उसका कारण ही यही था की राजनीति में अच्छे लोगों को ना आने दिया जाए।
ऐसे समय में जब पश्चिम से लेकर पूर्व तक गठबंधन की हवा है तब मल्हनी क्षेत्र राष्ट्रीय स्तर के नेताओं का भरोसा चाहता है क्या यही समाजवादी राजनीति का दर्शन है। ऐसा लगता है कि राजनीति में पिछले दिनों जो कुछ हुआ था उसका असर अभी गया नहीं है।
यह कहने में और सुनने में शायद एक जैसा न लगे कि सपा के जिला पंचायत सदस्यों का मोल भाव किससे छिपा हुआ है किस तरह से सपा के जिला परिषद के अध्यक्ष के चुनाव में सपा के जिला परिषद के सदस्य बिक गए थे इसका असर जनता तक गया था जबकि जनता ने उन्हें चुना था।
आज के हालात में मतदाताओं की खरीद-फरोख्त निश्चित रूप से उनके राजनीतिक जीवन का सबसे खराब पहलू है जो बिना विचार किए धन के लालच में अपना बहुमूल्य वोट बिना विचार किए हुए किसी को दे दे।
भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियां समाजवाद की घोर दुश्मन है, जो संविधान और लोकतंत्र को नहीं मानती हैं अपने आर्थिक जो झूठ और जुमले के सहारे जनता को गुमराह करने पर निरंतर योजना बनाती रहती हैं और धीरे-धीरे संविधान की 1-1 शाखा को कमजोर करती जा रही है.
संवैधानिक व्यवस्था ही एक ऐसी व्यवस्था है जो समाज में समता समानता और भाईचारे का विस्तार करती है अन्यथा वही लोग जो संवैधानिक कारणों से आज कोई मुकाम हासिल कर लिए हैं वह अंधभक्त होकर पाखंड में इस तरह से घुल मिल गए हैं कि ऐसा लगता है कि जैसे समाज और समानता के लिए बिना पाखंड के कोई मार्ग ही नहीं है।
पाखंड से तात्पर्य उस विचार और व्यवस्था से है जो व्यक्ति को विज्ञान से दूर करती है कई ऐसी संस्थाएं जो विकल्प के रूप में इस पाखंड से अपने को अब तक दूर बताती रही हैं वह भी कहीं ना कहीं इसकी धारा बन जाती हैं।
इस बीच हमने देखा है जिन लोगों ने या उनके पूर्वजों ने पाखंडी धर्म को त्याग कर अपना एक नया धर्म या पंथ बना लिए थे वह सब फिर से इसी पाखंड के प्रपंच में फंसते नजर आ रहे हैं।
कमोवेश आर्य समाज सीख बौद्ध इत्यादि धर्म को मानने वाले लोग जब पुनः पाखंड के विचारों को सक्रियता के साथ स्वीकार करते हैं तब ऐसा लगता है कि जैसे हजारों साल की गुलामी में धर्म बहुत प्रभावी आधार रहा है हजारों हजार साल तक हजारों हजार लोगों को पाखंड के माध्यम से अपना गुलाम बनाए रखा है उसी तरह से हम जानवरों की तरह फिर से उसके गुलाम बनने के लिए तैयार हैं।
यह लड़ाई हमारे महापुरुषों ने बखूबी छेड़ी हुई थी, जिनमें महात्मा बुध संत कबीर ज्योतिबा फुले और बाबा साहब अंबेडकर ने इसको अच्छी तरह समझा और इसके खिलाफ आवाम को खड़ा होने का संदेश दिया।
कुछ लोगों का मानना तो यह है कि बाबा साहब अंबेडकर और उसके बाद के लोगों ने यहां तक कि मान्यवर कांशी राम ने उत्तर भारत और विभिन्न क्षेत्रों की बहुजन जातियों को जगाने का काम किया लेकिन उनके अनुयायियों ने जिस तरह से अपने ही महापुरुषों के विचारों से अलग होकर जो रास्ता चुना वह निश्चित रूप से पाखंड की तरफ ले जाने के लिए द्रुतगामी साबित हो रहा है।
जो लोग समाजवादी राजनीति के माध्यम से सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के खिलाफ काम कर रहे हैं उनकी बातों को लोग हल्के में ले कर आज भी वही काम कर रहे हैं जो सदियों से उनकी गुलामी का आधार रहा है। हो सकता है उन्हें अपनी राजनीति अपनी आर्थिक सुचिता और वर्तमान में मिले हुए सम्मान से सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की कुटिलता समझ में ना आए लेकिन यह निश्चित है कि जो जातियां इस वर्णवादी और मनुवादी संस्कृति की समर्थक हैं वह उन पर सांस्कृतिक रूप से साम्राज्य स्थापित कर लेंगी।
यह प्रवृत्ति नीचे तक जा रही है और गुलामी की भीड भेड़ की तरह उनके पीछे चल पड़ी है।