मां-बाप से दूर दो नवजातों को एसएनसीयू में मिला प्यार, शिशुओं का कर रहे उपचार
जौनपुर। खून के रिश्तों में अपने कहलाने वालों ने जब साथ छोड़ दिया तो एसएनसीयू ने एक परिवार की तरह अपना लिया। यह कहानी है उन दो नवजात की जो जिले के अलग-अलग इलाके में लावारिश हालत में मिले।
एसएनसीयू प्रभारी डॉ संदीप सिंह ने बताया कि वर्तमान में दो नवजात यहां भर्ती हैं। इसमें एक बच्ची 20 जनवरी को जलालपुर में एक नहर के पास मिली थी जबकि दूसरा नवजात 29 जनवरी को खुटहन ब्लॉक के उंगली गांव से लाया गया। इस केंद्र में बेहतर साफ-सफाई रखी जाती है। स्वीप्रेस कंचन गुप्ता तथा वार्ड आया डिम्पी सिंह उन्हें दूध पिलाने से लेकर एक मां जैसी सारी जिम्मेदारियां निभाती दिखती हैं। दोनों थोड़ी-थोड़ी देर पर बच्चों के पास जाती रहती हैं और तुरंत साफ-सफाई कर देती हैं। नवजात की जरा सी रोने की आवाज आई तो गोद में लेकर दूध पिलाने लगती हैं। अब तो यहां के स्टाफ के बच्चे इस शिशुओं के साथ खेलना चाहते हैं। उनके मम्मी-पापा के बारे में पूछते हैं। डाटा एंट्री ऑपरेटर पूनम पाठक की बेटी लवी इन दोनों से खेलना चाहती है। जब-तब उनके पास पहुंच कर बात करने का प्रयास करती है लेकिन यह नवजात अधिकांश समय सोते रहते हैं। पूनम की बेटी स्टाफ नर्सों से उनके मम्मी-पापा के बारे में पूछती रहती है। कहती हैं कि बड़ी हो जाने पर उनके साथ खेलेगी। एक बार पूनम ने कह दिया कि मैं उसकी मम्मी हो जाऊंगी तो वह गुस्सा हो गई।
नोडल अधिकारी डॉ. संदीप सिंह बताते हैं कि लावारिस मिलने वाले ज्यादातर नवजात यहां पर “चाइल्ड लाइन” के माध्यम से आते हैं। शुरू में ऐसे बच्चे बहुत कम मिलते थे अब हर वर्ष 12 से 15 ऐसे नवजात आ जाते हैं। उन्हें स्वस्थ बनाने में डॉ एमके गुप्ता और डॉ दीपक जायसवाल का भी सहयोग रहता है। यहां आने पर उनके इलाज से लेकर कपड़ा और दूध सभी का खर्च एसएनसीयू ही उठाता है। ऐसे एक नवजात की परवरिस में प्रतिदिन औसतन 150 से 200 रुपये तक का खर्च आता है। स्वस्थ हो जाने पर बाल संरक्षण गृह से सम्पर्क कर उन्हें बाल संरक्षण अधिकारी को सौंप दिया जाता है। जहां से वह बाल संरक्षण गृह बलिया आदि अन्य जगहों पर अच्छे स्वास्थ्य एवं जीवन प्रबंधन के लिए भेज दिए जाते हैं।
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