गाँव की सरकारः कगजी आरक्षण में महिलाओं को अधिकार, लेकिन काम काज में भागीदारी नहीं



पंचायतों में महिलाओं को अधिकार और आरक्षण तो लोकतांत्रिक कानून में मिल गया लेकिन काम करने की आजादी आज तक सायद  नहीं मिल सकी है। गांव की सरकार में अधिकतर महिला जन प्रतिनिधियों की बागडोर उनके परिवार के पुरुषों के हाथ में रहती है। न तो उन्हें फैसले लेने की आजादी होती है, न ही दफ्तरों तक पहुंच हो सकी है।
महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण भले ही दिया गया है, लेकिन वह जमीनी हकीकत कोसों दूर है। वे न त मर्जी से वोट डाल पाती हैं और न ही पंचायत के कामकाज में फैसले लेती हैं। 2015 के चुनावों में कुल 3,00,419 महिला प्रतिनिधियों को चुना गया, लेकिन व्यवस्था में इनकी सक्रिय भागीदारी न के बराबर रही। 
पंचायत चुनावों में प्रदेश के 25 जिलों में महिलाओं की जगह उनके प्रतिनिधियों के काम करने की व्यवस्था के खिलाफ जनजागरुकता अभियान चलाने वाली संस्था, सहभागी शिक्षण संस्थान के अध्यन के अनुसार मात्र 2 से 3 फीसदी महिला प्रतिनिधि ही सक्रिय भूमिका निभाती नजर आयी हैं। 
यूपी में सरकार ने 10 मार्च 1993 को जिलाधिकारियों और मंडलायुक्तों को पत्र लिखकर कहा था कि दफ्तरों में महिला प्रधानों के साथ उनके पति या परिवारीजनों का आना रोका जाए। जिन महिला प्रधानों और सदस्यों से बात की गई उन सभी से पता चला कि महिला सीट आरक्षित होने के बाद ही घऱ के पुरुषों ने उन्हें चुनाव लड़ाया, लेकिन काम अपने हाथ में ही रखा। ब्लॉक में 90 फीसदी महिलाएं ऐसी आती थीं, जिनकी पंचायतों के फैसले उनके पति, बेटे या परिवार के दूसरे सदस्य लेते थे।
महिला जन प्रतिनिधियोंको इतना भी पता नहीं होता कि उनकी पंचायत में उनके साथ कितने सदस्य है और विकास कहाँ और कितना किया जा रहा है। बस रबर स्टैम्प की तरह पति बेटा अथवा परिजन जहां चाहते हैं दस्तखत करा लेते है। इसमें भी लगभग 70 प्रति तो खुद ही हस्ताक्षर बना लेते हैं। इस तरह गांव की सरकार  में महिलाओं को कागजी जनप्रतिनिधि से अधिक कुछ भी नहीं है। 



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