वर्तमान में भारतीय शिक्षा व्यवस्था : गतिशील अथवा दिशाहीन --डॉ अखिलेश्वर शुक्ला




कोरोना काल में विश्वविद्यालयों एवं शिक्षण संस्था प्रमुखों की चिंताएं छात्रों की परीक्षा ,प्रवेश, कक्षाएं चलाने को लेकर व्यक्त की जा रही है । बार- बार परीक्षा तिथि घोषित करना स्थगित करना , तब बंद हुआ जब मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया कि 15 अगस्त के पूर्व शिक्षण संस्थाओं को नहीं खोला जा सकता । यह निर्णय वर्तमान परिस्थितियों में उचित व स्वागत योग्य भी है। वास्तव में भारत के भविष्य युवा नौजवानों का जीवन दाव पर नहीं लगाया जा सकता है। नियमित परीक्षाएं बैक पेपर के समय पर भी कराई जा सकती हैं । तथा प्रतियोगी परीक्षाएं जिसे शासन प्रशासन की देखरेख में होना है 
उसे प्रशासन अपने स्तर से संपन्न करा सकता है। कई प्रकार के सुझाव संस्था प्रमुखों व प्रबुद्धजनों की तरफ से आते रहे हैं। जिसमें ऑड- ईवेन उपस्थिति,  प्रश्न पत्रों के स्वरूप,  शिक्षण की पद्धति आदि है ।                                                                        सभी के सुझाव का केंद्र बिंदु वहीं शिक्षा व्यवस्था है । जिसे लार्ड मैकाले ने एक कमजोर भारत की कल्पना के साथ संस्कृति विहीन , नैतिकता व संस्कार रहित शिक्षा नीति का प्रारुप 1835 में तैयार और 1860 में लागू किया। प्राच्य -पाश्चात्य विवाद पर कहा गया कि संस्कृत, अरबी-फारसी पर धन ब्यय करना मुर्खता है। प्राच्य पुस्तकों का प्रकाशन बंद कर दिया गया। यह भी कहा गया कि भारत-अरब की समस्त शिक्षा के बराबर ब्रिटिश पुस्तकालय की आलमारी का एक तख्त है।                                                                    लार्ड थामस बैबिंगटन मैकाले ने 02 फरवरी 1935 को ब्रिटिश संसद में अपने भारत भ्रमण का जिक्र करते हुए कहा था कि- "यदि भारत को गुलाम बनाना है तो इस देश के मेरूदंड अर्थात भारतीय आध्यात्मिक व सांस्कृतिक परंपराओं को तोड़ना होगा। सुझाव दिया कि - इसकी शिक्षा पद्धति और संस्कृति को बर्बाद करना होगा, क्योंकि जब प्रत्येक भारतीय के मन में यह बात अच्छी तरह घर कर जाएगी कि जो भी विलायती हैं , वह उनके देसी से श्रेष्ठ हैं, महान हैं। तब ये हीन भावना से ग्रस्त होकर अपनी गरिमा, अपने संस्कार , स्वदेश प्रेम , व स्वाभिमान को खो देंगे। इनका मनोबल टूट जाएगा । तब हम वास्तव में अपने इरादे में कामयाब हो जाएंगे । तब सही मायने में भारत हमारा गुलाम बन जाएगा। " इस बयान का खंडन भी किया जाता है। लेकिन यह स्वीकार किया जाता है कि मैकाले भारतीय संस्कृति सभ्यता व परंपराओं से घृणा करता था।वह भारत को अंग्रेजी का गुलाम बनाना चाहता था।           
1600 ईं में जब इस्ट इंडिया कंपनी भारत आई थी। उस समय फ्रांसीसी यात्री बर्नियर ने भारतीय आर्थिक स्थिति का वर्णन करते हुए कहा था कि-" यह हिंदुस्तान एक ऐसा अथाह गढ्ढा है। जिसमें संसार का अधिकांश सोना और चांदी चारों तरफ से अनेक रास्तों से आकर जमा होता है। और जिस से बाहर निकलने का उसे एक भी रास्ता नहीं मिलता।"  लेकिन आते ही कंपनी ने सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत से सोना चांदी गायब कर दिया । लूटपाट, बेईमानी, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देकर भारत को कंगाल बना दिया। भारत वर्षों तक अकाल और भुखमरी से बेहाल रहा। स्थिति यह थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी वापसी की तैयारी कर रही थी। ऐसे समय में लार्ड मैकाले ने शिक्षा नीति का प्रारूप तैयार किया। जिससे अंग्रेजी माध्यम से पढ़े-लिखे बाबूओं की आवश्यकता पूरी हो सके। शासन तब की रही हो या अब की - अपने कामों को जनता के हित में ही बताती है। लार्ड मैकाले ने यही सिद्ध किया और कहा कि -" समझदार भारतीय समझने लगे हैं तभी तो जहां संस्कृत ,अरबी -फारसी की शिक्षा पाने के लिए लोग छात्रवृत्ति चाहते हैं!  वहां अंग्रेजी पढ़ने के इच्छुक लोग स्वेच्छा से मोटी फीस देने को तैयार हैं।                                       
दुनिया के जितने भी विकसित देश हैं उनको देखकर स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि वे अपनी भाषा , संस्कृति ,  परंपराओं के आधार पर ही विकसित हुए हैं। बल्कि काफी कुछ भारत की हजारों वर्ष पुराने विचारों,विज्ञान को नये कलेवर में ढालने का काम किया है। जैसे- भारतीय सदियों से कहते रहे हैं:- "जैसा करोगे- वैसा पाओगे"। वैज्ञानिक न्यूटन  ने " क्रिया के बिरूद्ध प्रतिक्रया"(Action-Reaction)का विदेशी संस्करण प्रस्तुत किया। जिसे छात्रों  को पढ़ाया जाता है। आज की परिस्थितियों में लार्ड मैकाले के शिक्षा नीति से मुक्त होना आसान नहीं है। हां ! कुछ सुधारों के साथ आगे बढ़ा जा सकता है। पारम्परिक शिक्षा का उद्देश्य देश-दुनिया की जानकारी व डिग्री प्राप्त करके जीविकोपार्जन है? ज्ञान हमें जीवन जीने का सही ढंग (कला)सिखाता है। दोनों को साथ लेकर एक अच्छी शिक्षा व्यवस्था की संकल्पना को साकार किया जा सकता है।                                                          डिग्री बांटने, बेरोजगारों की संख्या बढ़ाने, परीक्षा के बाद फिर प्रतियोगी परीक्षाओं की भीड़ बढ़ाने के बजाय 10वीं, 12वीं  तक पहुंचते ही छाञों की मेधाशक्ति, कौशल, अभिरुचि का निर्धारण करने का तंत्र विकसित करना उचित होगा। ताकि युवा- नौजवानों के भटकाव एवं पलायन को समय रहते रोका जा सके। शिक्षा ही सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक, राजनीतिक तथा राष्ट्रीय चरित्र का मूल आधार है। शिक्षा ही राष्ट्रीय विकास का मूल आधार है। शिक्षा वह है जिसमें छाञ भटक जाए तो शिक्षक मार्गदर्शन करते हैं।जब शिक्षक,शिक्षण संस्थान , शिक्षणसंस्थान प्रमुख सहित पुरी शिक्षा ब्यवस्था हीं भटक जाये, तो फिर उस राष्ट्र का क्या होगा?                                                                   विश्वव्यापी कोरोना संक्रमण से सबक लेते हुए हमें उस  "सोने की चिड़िया कहलाने वाले प्राच्य भारत" की आर्थिक स्थिति को याद करने की आवश्यकता है । जब सबकी नजर भारत के तरफ लगी थी। एक बार फिर सबकी नजर भारत की तरफ है। एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था जिससे शिक्षा प्राप्त करने वाले लोग अपनी गलतियों को स्वीकारने तथा सुधारने की जज्बा के साथ आगे बढ़े। विश्वास है -भारत को कोई रोक नहीं सकता।                      

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